क्या इंडिया गठबंधन से हुए समझौते का असर कांग्रेस की भविष्य की संभावनाओं पर पड़ेगा ? क्या लोकसभा चुनाव के मैदान से पंजा के गायब हो जाने की मायूसी के चलते नेता और कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो रहे हैं ? सालों से कांग्रेस का झंडा उठाने वाले लोग अब भाजपा में अपनी नई जमीन की तलाश में हैं ? ये सारे सवाल आजकल सियासी हलकों से लेकर आम जनमानस के जेहन में हैं। जानकारों का कहना है कि दूसरे राज्यों में समाजवादी पार्टी के प्रभाव वाली अन्य सीटों पर फायदे के लिए कांग्रेस ने एमपी में खुदके मजबूत जनाधार वाले खजुराहो को सपा के हवाले अवश्य कर दिया लेकिन इस सीट पर कुल मिलाकर उसे नुकसान ही उठाना पड़ा। अव्वल तो पंजा छोड़ सायकिल के लिए वोट मांगने को लेकर कांग्रेसी शुरू से अनमने थे, इसके बाद इंडिया गठबंधन भी जब सीधे तौर पर चुनावी पिक्चर से आउट होकर फारवर्ड ब्लॉक के उम्मीदवार के पीछे आकर खड़ा हो गया तो इस नई परिस्थिति में कांग्रेस का आम कार्यकर्ता हताशा की हद तक पहुंच गया। हाईकमान के निर्देशों का पालन करने की मजबूरी को जो लोग बर्दाश्त नही कर पाए वे पार्टी से ही कूच कर गए। नेताओं के दल बदल के पीछे कहानी चाहे जो हो पर कांग्रेस को आने वाले समय में खुदको मजबूत करने की चुनौतियों से जूझना होगा। वैसे भी लगातार हार से कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटा हुआ है।
खजुराहो संसदीय क्षेत्र की परिस्थितियां इस बार अलग तरह की निर्मित हो गई हैं, जिसमें चुनाव की जीत-हार से आगे जाकर कांग्रेस के भविष्य को लेकर मंथन होने लगा है। राजनीति के जानकारों की नजर में लोकसभा जैसे बड़े चुनाव में यदि पार्टी का सिंबल गायब हुआ तो इसका सीधा असर उस इलाके में भविष्य की संभावनाओं पर पड़ता है। खजुराहो में कांग्रेस के पास बीजेपी से टक्कर लेने के लिए पर्याप्त जनाधार था। संसदीय क्षेत्र की 8 विधानसभा सीटों में से केवल कटनी जिले की 3 सीटों के संदर्भ में भी बात को केंद्रित करें तो यहां कांग्रेस तगड़ी फाइट देने की स्थिति में खड़ी थी। कुछ माह पहले हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे बताते हैं कि मुड़वारा, विजयराघवगढ़ और बहोरीबंद में कांग्रेस हार के बावजूद भाजपा के सामने सशक्त चुनौती पेश करने में सफल रही। ऐसी स्थिति में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के पास मौका था कि वह कार्यकर्ताओं को रिचार्ज कर नए सिरे से संगठन को खड़ा कर सकती थी लेकिन खजुराहो सीट पर समझौते की कहानी ने कार्यकर्ताओं को विधानसभा चुनाव की हार से उबरने का अवसर देने के बजाय निराशा के गर्त में धकेल दिया। जिले भर में अनेक नेताओं के दल-बदल के रूप में इसके साइड इफेक्ट मिलना शुरू हो गए। ध्रुवप्रताप सिंह, शंकर महतो, विजेंद्र मिश्र, सुनील रांधेलिया से लेकर कांग्रेस से नाता तोड़ने वालों की बड़ी कतार है, जिसमें कांग्रेस संगठन के पदाधिकारियों से लेकर मौजूदा पार्षद भी शामिल हैं। इनके साथ छोटे- मोटे नेताओं की तादात तो बहुत है। इन्ही की जुबानी अगर बात करें तो सबको कांग्रेस में अपना भविष्य सुरक्षित दिखलाई नही पड़ रहा था। कोई राम मंदिर के मामले में कांग्रेस आलाकमान के कदम से आहत था, तो किसी को कांग्रेस में बड़े ओहदे की तलाश थी। किसी को व्यापार पर खतरा मंडराता दिख रहा था तो कोई अति महत्वाकांक्षा का शिकार होकर पार्टी से बगावत कर बैठा। वजह चाहे जो हो लेकिन संसदीय चुनाव के बीच एक माह के भीतर जो माहौल बना उसने कांग्रेस की जमीन हिला दी है।
इस बार बेहतर थी कांग्रेस की संभावनाएं
संगठन प्रमुखों की इन दलीलों से पूर्व विधायक और वरिष्ठ कांग्रेस नेता सुनील मिश्रा की राय जुदा है। वे कहते हैं पार्टी छोड़कर जाने वालों का अपना निर्णय हो सकता है लेकिन कांग्रेस के उच्च पदाधिकारियों की कार्यप्रणाली में सुधार की आवश्यकता है। टीका-टिप्पणी से बचते हुए जमीन पर आकर काम करने से जनता का भरोसा अर्जित होगा। सुनील मिश्रा मानते है कि सीट समझौते में जाने की स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है, जबकि इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की संभावनाएं बेहतर थी। कटनी के किसी नेता को टिकट मिलता तो जिले के लोगों का व्यापक समर्थन मिलता। वे कहते हैं कटनी के लोगों को अपने हितों की लड़ाई खुद लड़नी पड़ेगी। मसलन माधवनगर के लोगों ने हर चुनाव में बीजेपी का साथ दिया लेकिन उनकी समस्याएं कभी हल नही हो पाई। कुल मिलाकर कांग्रेस के नेता मानते हैं कि पार्टी को भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए नए सिरे से तैयार करना होगा। महापौर और विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद लोकसभा चुनाव में पंजे की गैरहाजिरी से टूटा मनोबल किस करिश्मे से जुड़ेगा, इसका इंतजार खुद कार्यकर्ताओं को भी है।
भाजपा में जाने वालों को मिली नई जमीन
कांग्रेस के पदाधिकारी सार्वजनिक तौर पर यह बात अक्सर कहते हैं कि कांग्रेस से पलायन कर बीजेपी में अपनी जमीन तलाशने वालों को न पद मिलेगा, न प्रतिष्ठा किन्तु कटनी के दल-बदलुओं के मामले में इस तर्क में सच्चाई नजर नही आती। जिले में पिछले 15 साल का रिकार्ड देखा जाए तो कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आने वाले नेता मुनाफे में रहे। सत्ता के हर बड़े पद पर न केवल इनका कब्जा हुआ, बल्कि इन नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी में अपनी अलग जमीन तैयार कर ली। चुनावों में इन्हें टिकट भी मिली और जनता ने वोट देकर उनके फैसलों पर मुहर भी लगाई। विधानसभा हो या नगर निगम, पंचायत चुनाव हो या मंडी, तम्माम जगहों पर कांग्रेस से भाजपा में आये लोगों का ही कब्जा हुआ। मूल भाजपाई तो दरी बिछाने तक सीमित रहे। सही मायने में भाजपा में आकर कांग्रेसियों का जो वर्चस्व स्थापित हुआ उसी ने बड़ी तादात में इस चुनाव में दल-बदल की इबारत लिखी।