पिछले हफ्ते कांग्रेस के वयोवृद्ध नेता एके एंटनी ने ऐसे इशारे किए थे कि गांधी परिवार का कोई न कोई यूपी से जरूर चुनाव लड़ेगा. इस बीच आज तक ने खबर दी है कि अमेठी में कांग्रेस कार्यालय का रंगरोगन शुरू हुआ है. इसे गांधी फैमिली के किसी मेंबर के आने से जोड़कर देखा जा रहा है.
कांग्रेस ने अभी तक उत्तर प्रदेश में अपनी सबसे महत्वपूर्ण 2 सीटों पर प्रत्याशियों का फैसला नहीं किया है. ये सीटे हैं अमेठी और रायबरेली. चूंकि इन दोनों ही सीटों पर गांधी परिवार के लोग प्रतिनिधित्व करते रहे हैं इसलिए ये दोनों संसदीय सीटें वीआईपी मानी जाती रही हैं. पर सोनिया गांधी ने अपनी उम्र और स्वास्थ्य कारणों के चलते रायबरेली से चुनाव न लड़ने की बात बहुत पहले बता दी थी. तबसे आम लोगों ही नहीं राजनीतिक दलों को भी यह लगता रहा है कि हो सकता है रायबरेली सीट से प्रियंका गांधी चुनाव लड़ें. पर इस लोकसभा चुनाव का प्रथम चरण शुक्रवार को खत्म हो गया पर अभी तक यह फैसला नहीं लिया जा सका कि रायबरेली और अमेठी से कौन चुनाव लड़ रहा है. पर इस बीच बीजेपी के प्रचार तंत्र ने यह बात अपने हित में भली भांति यूपी की जनता के बीच पहुंचा दी कि गांधी परिवार यूपी में चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है. पर पिछले हफ्ते कांग्रेस के वयोवृद्ध नेता एके एंटनी ने ऐसे इशारे किए कि गांधी परिव का कोई न कोई यूपी से जरूर चुनाव लड़ेगा. इस बीच आज तक खबर दी है कि अमेठी में कांग्रेस कार्यालय का रंगरोगन शुरू हुआ है. कार्यालय में हो रही साफ सफाई से लोगों को अंदाजा लगा है कि जरूर कोई गांधी फैमिली से आ रहा है. पर क्या ये टाइम आने का है? क्या आने में देर नहीं कर दिया हुजूर ( राहुल या प्रियंका) ने?
1-रायबरेली तो जीती हुई सीट है ऐसे ही क्यूं छोड़ना?
2024 के लोकसभा चुनाव के नजरिए से कांग्रेस के लिए रायबरेली सीट का महत्व सिर्फ इस कारण नहीं है कि गांधी परिवार का उससे पीढ़ियों का नाता है. बड़ी वजह यह भी है कि 2019 की मोदी लहर में भी उत्तर प्रदेश की इस इकलौती सीट ने लोकसभा में प्रदेश से कांग्रेस की उपस्थिति बरकरार रखी.अब इस सीट से मुंह मोड़ना कुछ वैसा ही है जैसे कि सेनापति का युद्ध का मैदान छोड़कर भाग जाना. अमेठी में हार के बाद राहुल का वायनाड जाना समझ में आता है पर रायबरेली जो जीती हुई सीट है उससे मुंह मोड़ना क्यों? यह सही है कि रायबरेली में दिन प्रति दिन कांग्रेस को मिलने वाले वोट्स की सख्या गिर रही है पर यह कारण अपनी विरासत छोड़ने का नहीं हो सकता है. गांधी परिवार को यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि जनता भगोड़े को कभी माफ नहीं करती. लड़ते- लड़ते शहीद हुए योद्धा को कई पीढ़ियों तक याद रखा जाता है. इतिहास में कभी भी हार नहीं मानने वाले योद्धाओं के वंशजों को बाद में परिस्थितियां ठीक होने
2-यूपी में बीजेपी के खिलाफ माहौल को तैयार करने में मदद
दोनों निर्वाचन क्षेत्र सामान्य सीटें नहीं हैं, बल्कि परिवार की विरासत, प्रतिष्ठा और इतिहास के साथ-साथ पार्टी के लोकाचार को भी दर्शाते हैं. गांधी फैमिल अपने पारिवारिक विरासत वाले क्षेत्र में लड़ने से राज्य में ही नहीं पूरे उत्तर भारत में पार्टी कैडर के बचे हुए लोगों को प्रेरित करेगा. इन दोनों सीटों से गांधी परिवार के चेहरे कांग्रेस के मतदाताओं में आत्मविश्वास, लचीलापन और वफादारी का संदेश देंगे
यूपी में बीजेपी भले ही पिछले चुनावों में 65 सीटें जीतने में कामयाब हुई थी पर करीब एक दर्जन सीटों पर उनकी स्थिति पिछली बार बेहतर नहीं थी. कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी पॉजिटिव बात यह है कि समाजवादी पार्टी का बेस उत्तर प्रदेश में बहुत मजबूत है. अगर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ठीक से चुनाव लड़ते तो हो सकता है कि उम्मीद से बेहतर रिजल्ट आते.
अगर राहुल गांधी अमेठी से और प्रियंका गांधी रायबरेली से चुनाव लड़तीं तो एक संदेश यह जाता कि उनके नेता मोर्चे पर लड़ रहे हैं. कार्यकर्ता में पार्टी की जीत के लिए प्रचार करने का जज्बा होता है. इन दोनों की आस पास की कम से कम 10 सीटों पर माहौल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के पक्ष में होता . यहां तो पब्लिक ये समझ रही है कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को ही चुनाव लड़ने में डर लग रहा है तो कांग्रेस अन्य कैंडिडेट का क्या चुनाव जीतने के लिए लड़ रहे
3-अब तक राहुल और अखिलेश की एक जॉइंट रैली तक न होना क्या संकेत है
भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ कांग्रेस और समाजवादी पार्टी मिलकर चुनाव लड़ रही हैं.ये बात आम लोगों को मीडिया के थ्रू ही पता चल रही है. अभी तक राहुल गांधी या प्रियंका गांधी और समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव की एक संयुक्त रैली तक नही हुई.आम जनता को ये कैसे पता चलेगा कि देश के ये 2 बड़े नेता और पार्टियां एक जुट हैं. अभी तीन दिन पहले गाजियाबाद में बहुत अनमने ढंग से बिना तैयारी के दोनों नेताओं ( राहुृल और अखिलेश) ने एक संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस किया. क्या इस तरह कैजुअल ढंग से एक बहुत ही शक्तिशाली पार्टी से मुकाबला किया जा सकता है. जब मोदी और शाह जैसे लोग चौबीस गुणे सात राजनीति कर रहे हों तो राहुल और अखिलेश के इस लापरवाही भरे रवैये के साथ जनता को कैसे वोट देने के लिए राजी किया जा सकेगा. अखिलेश यादव भी इस बीच बहुत दिनों तक गायब रहे . 12 अप्रैल से उन्हें भी रैली करते देखा जा रहा है.
4-गांधी फैमिली आती भी है तो इस चुनाव में अमेठी और रायबरेली का भविष्य
इन दोनों सीटों पर अभी तक उम्मीदवार न घोषित करने से कांग्रेस पहले ही बैकफुट पर है.हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि राहुल और प्रियंका गांधी के उम्मीदवार घोषित होने से ही आधी लड़ाई कांग्रेस जीत सकती है.गांधी फैमिली को यह सोचना चाहिए कि उत्तर भारत में पैर जमाए बिना भारत की राजनीतिक सत्ता को हासिल नहीं किया जा सकता. यदि भाई-बहन चुनाव नहीं लड़ने का फैसला करते हैं, तो इन निर्वाचन क्षेत्रों में परिणाम का कोई मतलब नहीं होगा. भाजपा दोनों सीटें जीतती है तो कांग्रेस के लिए इससे बुरा कुछ भी नहीं हो सकता है. स्मृति ईरानी, एक बाहरी व्यक्ति हैं जिनके पक्ष में कोई जातिगत गणित या इतिहास नहीं है फिर भी उन्होंने यहां जगह बनाई हैं. गांधी फैमिली को को अपनी विरासत को एक संसदीय सीट की जीत से नहीं तौलना चाहिए.
5- क्या है असमंजस
रायबरेली की पांच में चार विधानसभा सीटों पर काबिज समाजवादी पार्टी से कांग्रेस का गठबंधन है, फिर प्रियंका या राहुल के रायबरेली के चुनावी रण में उतरने में असमंजस की क्या वजह हो सकती है ? उत्तर प्रदेश के जिन गिने-चुने इलाकों में कांग्रेस की मौजूदगी कायम है, उसमें रायबरेली और अमेठी का खास मुकाम है. लेकिन इन दोनों ही इलाकों में भाजपा काफी समय से अपनी जमीन मजबूत कर रही है. अमेठी में उसने 2014 में कड़ी चुनौती पेश की और 2019 में जीत में भी लिया. रायबरेली में चुनाव दर चुनाव सोनिया गांधी को मिलने वाले वोट कम हो रहे थे. 2019 में रायबरेली में सोनिया को असफल चुनौती देने वाले दिनेश प्रताप सिंह को योगी मंत्रिमंडल में स्थान देकर वोटरों को संदेश दिया गया कि बीजेपी रायबरेली जीतने के लिए भी रणभेरी भर चुकी है.
हाल के राज्यसभा चुनाव के मौके पर ऊंचाहार ( रायबरेली) के विधायक मनोज पांडे, गौरीगंज (अमेठी) के विधायक राकेश प्रताप सिंह से क्रॉस वोटिंग और अमेठी की विधायक महाराजी प्रजापति को मतदान में अनुपस्थित कराके भाजपा ने सपा खेमे में सेंधमारी करके कांग्रेस को जो संदेश दिया है वो किसी भी नेता को असमंजस में डाल सकता है